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________________ प्रमाण मानता आया है । पर अनेक बातें ऐसी होती है जो वस्तुतः आगमगम्य होने पर भी हेतुवादके द्वारा समर्थन विना किये श्रोताओंको प्रतीतिकर नहीं होती । अत एव श्रीयुत भट्टाचार्यजीने भी इस निवन्धमें हेतुवादका प्रश्रय लिया है और यथासम्भव उन्होंने एतद्देशीय और देशान्तरीय चिन्तनधाराओंका तुलनात्मक उपयोग करके धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय तत्वोंकी प्रतीतिकर चर्चा की है, जिसमें वे बहुत कुछ सफल हुए है। श्रीयुत भट्टाचार्यजीने जिन्दगी भर जैन साहित्यका परिशीलन मुख्यतया अपने आप किया है। उनके परिशीलनका फल आज अनेक रूपोंमें जैन जगतके सामने आ रहा है। हमें उनके इस सतत विद्यायोगकी सराहना ही नहीं बल्कि उसका अनुकरण भी करना चाहिये। अगर जैन परंपरा स्वाध्याय तथा विद्याको सुनिश्चित तप समझे तो, मेरी रायमें, इस पुस्तकका प्रकाशन विशेष सार्थक सिद्ध होगा। श्रीयुत भट्टाचार्यजीने वंगाली और अंग्रेजीमें जैन परम्पराके अनेक विषयों पर बहुत कुछ लिखा है। उनके सारे लेखोंका संग्रह करके उनमेसे जो जो सर्वसाधारणगम्य करने जैसा जचे उसको हिन्दी या गुजरातीमें उतारना यह जैन संस्थाओंका सहज कर्तव्य है । इससे एक लिखा हुआ तैयार साहित्य नई पीढीको सुलम होगा और जैन साहित्य प्रकाशक संस्थाओंके लिये एक उपयोगी प्रवृत्ति प्राप्त होगी। ___ अभी अभी भट्टाचार्यजीका अनेकान्त विषयक अंग्रेजी इनामी निबंध गुजरातीम अनुवादित होकर भावनगरकी श्री जैन आत्मानन्द सभाकी ओरसे प्रसिद्ध हुआ है, ओ अभ्यासियोके लिये उपयोगी सिद्ध होगा।
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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