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________________ २९ कट्टर जैन परम्परा पहिलेसे अवश्य चली आती होगी, जिसके साथ महाराज खारवेलका खास सम्बन्ध रहा । उस परम्पराका जैन साहित्य कोई जुदा अवशिष्ट न रहा। जो कुछ नाश होनेसे बच गया वह क्रमशः श्वेताम्बर और दिगम्बर साहित्य में घुल-मिल गया । और महाराज खारवेलका निर्देशक कोई अंश साहित्यादि रूपमें रहा होगा तो वह उस फिरकेके साथ ही नामशेष हो गया । जो कुछ हो, पर इतना अवश्य मानना होगा कि, अंग मगध जैसे केन्द्रस्थानोंसे दक्षिणकी ओर जैन परम्पराके फैलनेके साथ ही बीचमें कलिंग एक पहिलेसे खासा जैन केन्द्र बना होगा । मैं समझता T हूं, इस दिशा में बहुत सावधानी से खोज की जाय तो कलिंग और उसके आसपासके सीमाप्रदेशोंमेंसे इस तूटती कडीको जोडनेवाली बहुतकुछ सामग्री मिल सकती है। प्रस्तुत पुस्तकमें खारवेल के निबन्धकी सार्थकता उसी ओर संशोधकोंका ध्यान खींचने में है । अन्तिम निबंध धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय नामक दो द्रव्यतत्त्वसे सम्बन्ध रखता है । श्रीयुत भट्टाचार्यजीने इसमें निर्दिष्ट दोनो द्रव्यों के अस्तित्वका समर्थन मुख्यतया हेतुवाद - युक्तिवासे किया है। बीच बीचमें उन्होंने शास्त्रीय वाक्यका अवलंबन अवश्य लिया है, पर मुख्य झुकाव हेतुवादकी ओर है । हमें ध्यानमें रखना चाहिये कि, कोई भी दर्शन अकेले आगमवाद या अकेले तर्कवाद पर न चला है, न चल सकता है । तथागत बुद्धने विना परीक्षा किये अपने वचन तकको न माननेकी बात शिष्योंसे कही थी। पर आखिरको बौद्ध दर्शन भी पिटकशास्त्राव - लम्बी हो ही गया । जैन दर्शन तो पहिले ही से आप्तवचनको अन्तिम f
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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