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________________ जैन परम्पराके मौजूदा सब फिरके किसी न किसी प्रकारसे जैन साहित्य-प्रकाशनके लिये दत्तचित्त देखे जाते है। इस कार्यके लिये सब फिरकोंमें छोटी वडी प्रकाशक संस्थाएं भी है। उनके पास आर्थिक साधन भी है । संस्थाओके साथ थोडे बहुत विद्वान साधुओंका व पण्डितोंका सम्बन्ध भी देखा जाता है । सब संस्थाएं नवयुग योग्य नवीन साहित्यको हिमायत भी करती है। वस्तुतः आधुनिक शिक्षण-संस्थाओंमें प्रवर्तमान पाश्चात्य वैज्ञानिक दृष्टिकोण व ऐतिहासिक दृष्टिकोणका विचार करते हुए यह स्पष्ट जान पडता है कि, जैन साहित्यके प्रकाशनकी तथा निर्माणकी नवीनता अनिवार्य रूपसे आवश्यक है। नवीनता अनेक दृष्टिसे, अनेक विषयोको लेकर लाई जा सकती है, जो सत्यसे दूर भी न हो और वैज्ञानिक एवं ऐतिहासिक बुद्धिको संतुष्ट भी कर सके । इस दृष्टिका समादर विना किये अव नयी जिज्ञासु पीढीका मन हम जीत नहीं सकते । अत एव हमारा कर्तव्य यह भी रहना चाहिये कि, केवल अमूर्त-अदृश्य और तात्त्विक वातोकी-इने गिने लोगोंको स्पर्श करनेवाली बातोंकी - चर्चामें ही हमारा साहित्य फंसा न रहे। इसके सिवाय भी जैन परम्परा पर प्रकाश डालनेवाली अनेक बातें ऐसी है जो बहुत रुचिकर भी हैं और जिनकी चर्चा अभी तक ठीक ठीक हो नहीं पाई है, बल्कि यह कहना चाहिये कि भारतीय इतिहासके नकशेका एक कोना ही जिनकी चर्चा व गवेषणाके सिवाय अधुरा रहेगा। ऐसे विषयोंका संकेतभर सूचन करना हो तो निम्न लिखे अनुसार है:
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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