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________________ जैनोंका कर्मधाद २१५ कवाय यथाख्यात सम्यक्चारित्रका घात करता है। ___ इसका वर्णन करते हुवे जैनाचार्य कहते है कि, अनन्तानुबंधी क्रोध, पत्थरवाली भूमिमें हल चलानेसे पड़ी हुई और दीर्घकाल तक रहनेवाली रेखाके समान, दीर्घकाल स्थायी और अपरिवर्तनीय रहता है। मिट्टीवाली भूमिमें हल चलानेसे पड़ी हुई रेखाके समान अप्रत्याख्यान क्रोध कषाय होता है। रेतीमें हल चलानेसे जैसी लकीर पड़ती है उसके समान प्रत्याख्यान क्रोध कपाय समझना चाहिये । और पानीमें हलकी जैसी रेखा खिंचती है वैसा संचलन क्रोध समझना चाहिये। अनन्तानुवन्धी मान पर्वतके समान अचल रहता है। अप्रत्याख्यान मान कषाय अनन्तानुबन्धीसे कुछ नरम होता है । इसकी तुलना हाडपिंजरसे कर सकते है। प्रत्याख्यान मान और भी अधिक नरम होता है; लकड़ीके समान झुक जाता है। संचलन मान कषाय वेतके जैसा होता है। अनन्तानुबंधी माया वांसकी जड़ोंके समान कुटिल, अप्रत्याख्यान माया भैसके सींगके समान वक्र, प्रत्याख्यान माया गोमूत्रकी धाराके समान और संज्वलन माया खुरके' चिह्न जैसी कुटिल होती है। __ अनन्तानुबन्धी लोभ खूनके दागके ( कृमिरंगके ) समान, आसानीसे न छूटनेवाला; अप्रत्याख्यान लोभ गाड़ीके पैमें लगे हुए ओंगनके जैसा प्रत्याख्यान लोम शरीरमें लगी हुई कीचडके समान और संञ्चलन लोभ हल्दीके लेपके समान आसानीसे धुलनेवाला होता है। । । (४) अन्तराय कर्म जीवकी दानादिक स्वाभाविक शक्तिको १. अवलेखनी-बांसको छालके समान वक्र होती हैं। (तत्त्वार्य)
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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