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________________ २१६ जिनवाणी रोके रहता है। इसके ५ भेद है - (४३) दानान्तराय दान (त्याग) करनेकी इच्छाका घात करता है। (४४) लाभान्तराय लाभमें बाधा पहुंचाता है। (१५) भोगान्तराय भोग्य वस्तुका भोग न करने दे। जीव विषय-भोगका प्रयत्न करता है, परन्तु इस कर्मके उदयसे भोगमार्ग कंटकमय बन जाता है। जिस विषयका एक ही वार भोग हो सकता है उसे भोग कहते है, यथा आहार, जल, मुखवास आदि । (४६) उपभोगान्तराय उपभोग्य वस्तुके उपभोगमें विघ्न डालता है। जिस वस्तुका अनेक बार उपभोग हो सकता है उसे उपभोग्य कहते हैं, यथा वस्त्र,वाहन, आसन अदि। (४७) वीर्यान्तराय जीवके वीर्य, सामर्थ्य अथवा शक्तिको विकसित नहीं होने देता। घाती कर्मके ये ४७ भेद हुवे । घाती कर्म जीवके स्वाभाविक ज्ञान, दर्शन, श्रद्धा, चारित्र, वीर्य आदि गुणोंको ढके रहता है। अघाती कर्म जीवके स्वाभाविक गुणोंका लोप नहीं करता । अघाती कर्म केवल शरीरसे सम्बन्ध रखता है। वेदनीय, गोत्र, आयु और नाम ये चारों अघाती कर्म है। (५) वेदनीय कर्म सुख, दुःखकी कारणभूत सामग्री उत्पन्न करता है। इसके दो भेद हैं: (४८) शातावेदनीय सुखसाधनोंकी प्राप्तिमें सहायक होता है।
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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