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________________ २१४ जिनवाणी (२५) पुवेदकषाय-इसके उदयसे सीके साथ कामसेवन ___ की इच्छा होती है। (२६) नपुंसकवेदकषाय-स्त्री पुरुष दोनोंके साथ काम सेवनकी इच्छा होती है। कषायवेदनीय कर्मके १६ भेद है। क्रोध अथवा कोप, मान अथवा गर्व, माया अथवा वंचना और लोभ अथवा लोलुपता, इन चार कषायोंका उल्लेख पहिले किया जा चुका है। फिर, क्रोधादिके चार चार मेद होनेसे कषायवेदनीय कर्मके कुल १६ भेद हो जाते है--- (२७-३०) अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ कषायके उदयसे जीवके स्वरूपानुमवरूपसम्यग्दर्शनका घात होता है। जीव अनन्त संसारमें भटकता है। (३१-३४) अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ कषायके उदयसे एकदेश चारित्र (अणुव्रतरूप चारित्र) भी जीवके लिये असंभव हो जाय । यह कर्म अणुव्रतका रोध करता है। (३५-३८) प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ कषाय आत्माके समस्त चारित्रका घात करता है। यह महाव्रतका विरोधी है। चारों कषायोंमेंसे कोई एक कषाय महानतका अवरोध करता है। (३९-४२) संज्वलनकषाय चतुष्टय आत्मकि यथाख्यात चारित्रका घात करता है। क्रोधादि कोई भी
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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