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________________ २१३ जैनोंका कर्मवाद (१६) सम्यक्मिथ्यात्वकर्म-इस कर्मके उदयसे जीवको वस्तुमें सम्यक् एवं मिथ्यारूप मिश्रित श्रद्धा रहती है। (१७) सम्यक्प्रकृति (सम्यक्त्वमोहनीय)-इस गुणके उदयसे जीवके सम्यक्त्व मूल गुणका घात नहीं होता, परन्तु चलमलादि दोष रहते हैं। चारित्रमोहनीय कर्मके फलस्वरूप जीवका चारित्रगुण विकृत होता है । इसके भी नोकपाय वेदनीय और कपाय वेदनीय, ये दो भेद हैं। क्रोध, मान, माया और लोभको कपाय कहते हैं। उग्रता रहित कपाय, नोकपाय अथवा स्वल्प कषाय कहलाते हैं। नोकपाय वेदनीयके ९ भेद हैं(१८) हास्यकपाय-इसके उदससे जीवकों हास्यभाव उत्पन्न होता है। (१९) रतिकपाय-इसके उदयसे जीवकी परपदार्थमें आसक्ति होती है। (२०) अरतिकपाय-इसके उदयसे जीवको परपदार्थमें विरागनाराजी होती है। (२१) शोककपाय-इसके उदयसे जीवको शोक होता है । (२२) भयकपाय-इसके उदयसे जीवको भय लाता है। (२३) जुगुप्साकषाय-इसके उदयसे जीवको जुगुप्सा अथवा घृणा उन्पन्न होती है। (२४) स्त्री-वेदकपाय-इसके उदयसे पुरुषसेवनकी लालसा जागृत होती है।
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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