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________________ जैन विज्ञान पुद्गलको स्वरूप हैं। रूप, रस, स्पर्श और गंध ये पुद्गलके चार गुण है। पुद्गलकी संख्या अनन्त है। शब्द, बन्ध (मिलन), सूक्ष्मता, स्थूलता, आकार, भेद, अंधकार, छाया, आलोक और ताप-ये पुद्गलके पर्याय हैं, अर्थात् पुद्गलसे इनकी उत्पत्ति होती है । शब्द, आलोक (प्रकाश) और तापको पौद्गलिक माननेमें जैनोंने कुछ अंशोंमें वर्तमान. वैज्ञानिक खोजसे समता प्रदर्शित की है। अन्धकार और छायाको न्यायदर्शन पौद्गलिक नहीं मानता। वह तो इन्हे अभावमात्र ही मानता है। धर्म धर्मका अर्थ साधारणतः पुण्यकर्म समझा शाता है, परन्तु जैन दर्शन इसका यहां भिन्न अर्थ करता है । जैन मतानुसार इसका अर्थ Pranciple of motion से मिलता जुलता ही है । जिस प्रकार मछलियोंकी गतिमें पानी सहायता देता है उसी प्रकार जो, अजीवतत्व पुद्गल और जीवको गति करनेमें सहायता देता है उसे जैन विज्ञान 'धर्मतत्त्व' के नामसे पुकारता है। धर्म अमूर्त है, निष्क्रिय है और नित्य है। वह (धर्म) जीव और पुद्गलको गति नहीं देता- केवल उनकी गतिमें सहायक होता है। अधर्म अधर्मका अथपापकर्म न समझना चाहिये । जैन दर्शन यहां इसका अर्थ Principle of iest से मिलता जुलता करता है । रास्ता भूल जाने पर मुसाफिर जिस प्रकार गाढ अंधकार फैला हुवा देखकर रातको किसी जगह विश्राम करता है उसी प्रकार यह अधर्म-अजीवतत्त्व पुद्गल और जीवको स्थित रहनेमें सहायता देता है। धर्मके. समान.
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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