SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनवाणी अधम भी अमूर्त, निष्क्रिय और नित्य है। वह जीव और पुद्गलकी गतिको नहीं रोकता-केवल उनकी स्थितिमें सहायता करता है। आकाश जो अजीवतत्त्व जीव आदि पदार्थोंको अवकाश देता है अर्थात् जिस अजीवतत्त्वके भीतर जीवादि पदार्थ रह सकते हैं उसे आकाश कहते है। पाश्चात्य वैज्ञानिक इसे Space कहते हैं। आकाश नित्य और व्यापक है, एवं जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म तथा कालका आश्रयभूत है । जैन इस आकाशके दो भेद करते है-(१) लोकाकाश, (२) अलोकाकाश । लोकाकाशमें ही जीवादि आश्रय प्राप्त करते हैं । लोकाकाशके वाहद अनन्त-शून्यमय अलोक है। कालका अर्थ Time है। पदार्थक परिवर्तनमें जो अजीवतत्त्व सहायता करता है उसका नाम काल है। यह नित्य है और अमूर्त है । उस असंख्य [१] द्रव्यसे लोकाकाश परिपूर्ण है। पुद्गलादि पंच तत्त्वकी इतनी आलोचनासे ही कोई भी समझ सकता है कि वर्तमान जड विज्ञानके मूल तत्त्व जैन दर्शनमें छुपे हुवे हैं । प्राचीन ग्रीसके Democritus से लेकर वर्तमान युगके Boscovitch तकके सभी वैज्ञानिकोंने Atom पुद्गलके अस्तित्वको स्वीकार किया है। ये Atom अनत है, यह बात भी वे सव मानते हैं । वे इस विषय. में भी एकमत है कि इनके संयोग-वियोगके कारण ही जड़ जगतके स्थूल पदार्थ उत्पन्न होते है और लयको प्राप्त होते है।
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy