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________________ जिनवाणी 'जैन समाजके ' धारावाही इतिहास पर प्रकाश डालनेकी मुझमें शक्ति नहीं है । जैन विचारप्रवाहकी समस्त तरंगोंका दिग्दर्शन कराना भी' असम्भवप्रायः है । मै यहां केवल जैन दर्शन और विज्ञानका संक्षिप्त विवरण ही उपस्थित करना चाहता हूं । जैन सिद्धान्तानुसार जगतमें मुख्य दो तत्व है: जीव और अजीव । 'जीवका अर्थ है आत्मा और जीवसे जो भिन्न वह अजीव कहलाता है। विज्ञान - जड़ विज्ञान 2 जड विज्ञानको हस्ती अजीव पदार्थ के आश्रित ही है। किसीको यह न समझ लेना चाहिये कि वेदान्त जिसे 'माया' कहता है वही अजीब पदार्थ है । मायाकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है; ब्रह्मके विना वह बेकार है । परन्तु यह अजीवतत्त्व तो जीवतत्त्वके समान ही स्वाधीन, स्वतन्त्र, अनादि और अनन्त है। अजीवको सांख्यकथित प्रकृति भी न मान बैठना चाहिये । प्रकृति यद्यपि स्वाधीन, स्वतन्त्र, अनादि, अनंत है तथापि वह एक है; अजीव तत्त्व अनेक हैं । न्याय तथा वैशेषिक दर्शन सम्मत अणु और परमाणु भी जैन सिद्धान्तमान्य अजीव तत्त्वसे भिन्न है, क्यों कि अणु-परमाणुके अतिरिक्त अजीव तत्त्वके बहुतसे भेद है । बौद्धोंकि "शून्य" में भी यह अजीव तत्त्व नहीं समा जाता। जैन मतानुसार अजीवके पांच भेद है— पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल | पुद्गल जिसे अंग्रेजीमें मेटर (Matter) कहते है वही जैन दर्शनमें पुद्गल नामसे कथित है, यह कहा जाय तो अनुचित न होगा। ८०
SR No.010383
Book TitleJinavani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarisatya Bhattacharya, Sushil, Gopinath Gupt
PublisherCharitra Smarak Granthmala
Publication Year1952
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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