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________________ २०० जिनहर्प प्रन्धावली वधती प्रीति अपार, एकणि मालइ वे जण हो गोरी जइबसइ ।। नेमि न थईयइ धीठ, मोटानइ इणिवाते हो गोरी || मेहणी । तुझ सम कोइ न दीठ, जेण पराई जाई हो गोरी अवगणी ॥ राजुल राजकुमारी, अविचल पाली प्रिउ मुंहो गोरी प्रीतड़ी। कहइ जिनहरप विचारी. मुगति महल पावडीए हो गोरीजईचढी श्री नेमिनाथ लेख गीतं दाल | मीयानी ॥ स्वस्ति श्रीजिन पय प्रणमी करी, नेमि चरण सुखकार । या० प्रीतम पद पंकज रज मधुकरी, लिखितं राजुल रे नारि ! या० । आंखड़ीया नां वाल्हा रे साहिव सांभलउ, निपट निहेजारे नाह। संदेसा मोरा मनना वीनवं, आवि वुझावउ रे दाह ।। या० २ अत्र कुसल छे तुझ सुपसाय थी, तुमचा लिखिज्यो रे लेख ।या० जिम सुख सातारे मुझनइ ऊपजे, वारु वचन विसेप ।। या० ॥ अन्तरजामी रे आतम माहरा, मनना मान्या रे मीत । या० । तुझनइ मिलिवारे मुझ मन ऊलसइ, पइलां तरनी रे प्रीति ।४॥ कुण जाणइ मोरा मननी वातड़ी, किणिने कहीये रे दुख या० 'प्राण प्रिया तुम परदेसी थया, अलजउ देखण रे मुक्खाया०॥ हुविरहिणि तुझ पाखटलवलु, जिम पाणी विणि रे मीन । प्राणेसर विणि कहउ किम जीवीयइ, निसिदिन रहीये रे दीन। तुमनइ विरह न व्यापे साहिब, कठिण करी रह्या रे चीत या तुम विरहे मुझ काया परजले, जी केही रे रीति ॥ या० ॥
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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