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________________ [१४] ठोर ही ठोर दिवाली करे, नर दीपक मन्दिर ज्योति मुहावें । हू रे दिवाली करूगी तबे, मुझ सूं साढा लेई बोल अमोल मनमोहन कन्त जवे घरि आवे ॥४॥ ( नेमि राजीमती गीत, पृ० २११ ) ( २ ) तीन रहे कर मांहिक मांहिक वेगली | मन रली ॥ तिहा करे । रह्यां तिहां पटरस भोजन सरस सदाई जोवन रूप अनूप बिन्हेई आयो पावस मासक अम्बर ऊमट आयो इन्दक मेहा काली कांठल भबूकै बाहे वेहूँ पसारि मिलुं पूजे इण परे ॥४॥ गाजियौ । राजियौ ॥ बिजली । रली ॥५॥ ( स्यूलिभद्र गीत, पृ० ३६१ ) कवि जिनहर्ष ने प्रेमतत्व का बड़े विस्तार और साथ ही अत्यन्त बारीकी से वर्णन किया है। इस विषय में उनके उद्गार बडे ही मार्मिक है । उनके दोहें तो ऐसे हैं, जो एक बार सुन लेने पर कभी विस्मरण नहीं होते । जिनह मुनि थे और सद्धर्म का प्रचार उनका जीवनव्रत था । ऐसी स्थिति में उन्होंने प्रबोधन- गीत भी काफी लिखे हैं और उनमें शान्तरस की
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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