SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १३ । काती कत पधारिया, सीघा वछित काज | घरि दीपक उजवालिया, गोरगी जसरान ॥१२॥ (बारहमास रा दूहा, पृ० १२०-१२१) पडिवा पोउ हालीमओ, मइ हालन्तौ दीठ । मनडो ज्याही सु गयो, नण वहोड्या निठ्ठ ॥१॥ वीज स आज सहेलियां, ऊगो चन्द मयन्द । दुनिया वदै चन्द नै, हु वन्दू प्रीयचन्द ॥२॥ सखीयां तन सिणगार सजि, खेलो साँवण तीज । मो मन आमण-दमणो, देखि खिवन्ती बीज ॥३॥ चौथि भगवती पूजतां, आवै वहुली रिद्धि । जो प्रीतम घरि आवसी, चोथि करिस प्रीत वृद्धि ॥४॥ (पनरह तिथि रा दूहा, पृ० १२२-१२३ ) जैन कथाओं में नेमिनाथ एव स्थूलिभद्र विषयक कथानक अपने आपमें विरह से परिपूर्ण है। इनके सम्बन्ध में अनेक कवियो ने रचनाए की हैं। ऐसी स्थिति में प्रेम पथिक कवि जिनहर्ष के द्वारा इनका अपनाया जाना तो स्वाभाविक ही है। इनकी कथा-नायिकाओं के विरहोद्गार कविमुख से अनेकश प्रकट हुए है। उदाहरण देखिए (१) कातिग मास उदास भई, रांणी राजुल नेम बिना दुख पावै । प्राण सनेही सोई जसराज, ___ जो रूठे पीयारे क आणि मिलावे ।।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy