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________________ प्रथमभाग। ११५ नित० ॥५॥ कोटि जीभसों महिमा जाकी, कहि न सके पविधारी । दौल अल्पमति केम कहै यह, अधमउधारनहारी ।। नि०॥ ६ ॥ १२३. मत कीज्यो जी यारी, घिनगेह देह जड़ ; जानके, मत की० ॥ टेक ॥ मात-तात-रज-वीर: जसों यह, उपजी मलफुलवारी । अस्थिमालपल-नसाजालकी, लाल लाल जलक्यारी॥ मत की० ॥१॥ कर्मकुरंगथलीपुतली यह, मूत्रपुरीपभँडारी । चर्ममँडी रिपुकर्मघड़ी धन, धर्मचुरावनहारी ॥ मत कीज्यो० ॥ २ ॥ जेजे पावन वस्तु जगतमें, ते इन सर्व विगारी । खेदमेट्रॅकफक्तंदमयी बहु, मदंगदव्यालपिटारी ॥ मत की० ॥ ३॥ जा संयोग रोगभव तोलों, जा वियोग शिवकारी । बुध तासों न ममत्व करें यह, मूहमतिनको प्यारी॥मत की०॥४॥ १ वनधारी इन्द्र । २ घृणाका घर । ३ हाड़ माँस नसोंके समूहकी । ४ कर्मरूपी हिरनोंको फंसानेवाली जगहपर पुतलीके. समान। ५ विष्टा । ६ पसीना । ७ चरवी। ८ दुःख । ९ मदरोगरूपी सांपके लिये पिटारी। १० संसाररूपीरोग।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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