SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११४ जैनपदसंग्रह | जानके, नित पी० ॥ टेक ॥ वीरमुखारविंदतें प्रगटी, जन्मजरा-गर्द टारी । गौतमादिगुरु-उरघट व्यापी, परम सुरुचिकरतारी ॥ नित० ॥ १ ॥ सलिलसमान कलिलैमलगंजन बुधमनरंजनहारी । भंजन विभ्रमधूलि प्रभंजन, मिथ्या- जलदनिवारी || नित पी० ॥ २ ॥ कल्योनकतरु उपवनधरिनी, तैरनी भवजलतारी | बंधँविदारन 'पैनी छैनी, मुक्तिनसैनी सम्हारी ॥ नित पी० || ३ || स्वपरस्वरूप प्रकाशनको यह, भानुकलां अविकारी | मुनि- मन- कुमुदिनि-मोदन - शशिभा, शमसुखं सुमनसुबारी ॥ नि० ॥ ४ ॥ जाको सेवत बेवेत निजपद, नशत अविद्या सारी । तीनलोकैपति पूजत जाको, जान त्रिजगहितकारी | L १ महावीरस्वामीके मुखकमलसे । २ रोग । ३ जलकी समान । ४ पापरूपी मैलको नष्ट करनेवाली । ५ " मंगलतरुहि उपावन धरनी" ऐसा भी पाठ है । ६ नौका । ७ कर्मबंध । ८ तीखी छैणी । ९ मुनियोंकी मनरूपी कुमोदनीको प्रफुल्लित करनेकेलिये चंद्रमाकी रोशनी । १० समता- रूपी सुख ही हुआ पुष्प, उसकेलिये अच्छी वाटिका | ११ जानते वा अनुभवते हैं। १२ तीन भुवनके राजा इन्द्रादिक ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy