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________________ ११६ जैनपदसंग्रह। जिन पोषी ते भये सदोषी, तिन पाये दुख भारी । जिन तप ठान ध्यानकर शोपी, तिन परनी शिवनारी ॥ मत की० ॥ ५॥ सुरधनु शरदजलद जलबुदबुद, त्यों झट विनशनहारी। यातें भिन्न जान निज चेतन, दौल होहु शर्मधारी ।। मत की० ॥ ६॥ १२४. जाऊं कहां तज शरन तिहारे ॥ टेक ॥ चूक अनादितनी या हमरी, माफ करो करुणा गुन धारे ॥ १॥ डूबत हों भवसागरमें अब, तुम विनको मुह वार निकारे ॥ २॥ तुम सम देव अवर नहिं कोई, तातें हम गह हाथ पसारे ॥३॥ मोसम अधम अनेक उधारे, वरनत हैं श्रुत शास्त्र अपारे ॥४॥"दौलत" को भवपार करो अब, आयो है शरनागत थारे ॥५॥ tattitutet समाप्त। - १क्षीण की । २ इन्द्रधनुष्य । ३ शरदऋतुके वादल । ४ समताके धारी।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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