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________________ - प्रथमभाग। कठिन यह नरभव, जिन वृष विना गमायो । ते विलखें मनि डार उदधिमें, दौलत को पछतायो । सौ सौ० ॥ ४॥ न मानत यह जिय निपट अनारी । सिख देत सुगुरु हितकारी ॥ न मानत०॥ टेक ॥ कुमतिकुनारिसंग रति मानत, सुमतिसुनारि विसारी । न मानत० ॥ १॥ नरपरजाय सुरेश चहें सो, चखि विपविपय विगारी । त्याग अनाकुल ज्ञान चाह पैर, आकुलता विसतारी । न मानत० ॥२॥ अपनी भूल आप समतानिधि, भवदुख भरत भिखारी । परद्रव्यनकी परनतिको शट, वृथा वनत करतारी ॥ न मानत० ॥ ३॥ जिस कपाय-दव जरत तहां अभि, लापछटा घृत डारी । दुखसों डरै करै दुखकारन,-तं नित प्रीति करारी ॥ न मानत. ॥ ४॥ अतिदुर्लभ जिनवैन श्रवनकरि, संशय१ जिन्होंने । २ धर्म । ३ पुद्गलसम्बधी । ४ कर्ता । ५ गाढ़ी ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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