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________________ जैनपदसंग्रह। मोहनिवारी । दौल स्वपर-हित-अहित... होवहु शिवमगचारी ॥ न मानत०॥५॥ ___ हम तो कबहूं न हित उपजाये। • सुदेव-सुगुरु-सुसंगहित, कारन पाय गमाये, हम तो० ॥ टेक ॥ ज्यों शिशु नाचत आप. मांचत, लखनहार बौराये । त्यों श्रुतंबांचत न राचत, औरनको समुझाये ॥ हम तो॥ सुजस-लाहकी चाह न तज निज, प्रभुता . हरखाये । विषय तजे न जे निजपदमें, परपः दअपद लुभाये॥ हम तो० ॥२॥ जिन-जाप न कीन्हों, सुमनचाप-तप-ताये । चे. तन तनको कहत भिन्न पर, देह सनेही थाये . हम तो०॥३॥ यह चिर भूल भई हमरी अब कहा होत पछताये । दौल अजौं भवभौग मत, यों गुरु वचन सुनाये । हम तो०॥४. १ मग्न होते । २ शास्त्र पढ़ते । ३ सुयशके लाभकी हर मन हुए। ५ जिनदेवका जाप । ६ सुमनचाप-कामदेवकी तपनमें तप्त। . .. . MAR .. ..
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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