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________________ ८६ जैनपदसंग्रह | झरी | शिवपुर० ॥ १ ॥ ताहि न पाय तपाय देह बहु, जनममरन करि विपति भरी । काल पाय जिनधुनि सुनि मैं जन, ताहि लहूं सोइ धन्य घरी || शिव० ॥ २ ॥ ते जन धनि या माहिं चरत नित, तिन कीरति सुरपति उचरी । विषयचाह भवराह त्याग अब, दौल हरो रजरेहसिअरी || शिवपुर० ॥ ३ ॥ ९६. तोहि समझायो सौ सौ बार, जिया तोहि समझायो० ॥ टेक ॥ देख सुगुरुकी परहितमें रति, हितउपदेश सुनायो । सो सौ बार० ॥ १॥ विषयभुजंग सेय सुख पायो, पुनि तिनसों लपटायो | स्वपदविसार रच्यौ परपदमें, मैदरत ज्यों बोरायो । सौ सौ बार० ॥ २ ॥ तन धन स्वजन नहीं हैं तेरे, नाहक नेह लगायो । क्यों न तजै भ्रम चाख समामृत, जो नित संतसुहायो ॥ सौ सौ बार० || ३ || अब हू समझ १ चारघातिया कर्म । २ शरावी - मद्यप । ३ समता रूपी अमृते ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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