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________________ जैनपदसंग्रह | 198 जिनवानी || २ || पूरव जिन जानी तिनहीने, भांनी संसृतवान रे । अब जानें अरु जानेंगे जे, ते पावें शिवथान रे ॥ जिनवानी० ॥ ३ ॥ कह 'तुषमाष' मुनी शिवभूती, पायो केवल-ज्ञान रे । यों लखि दौलत सतत करो अवि, चिद्वचनामृतपान रे || जिनवानी० ॥ ४ ॥ ८१. जम आन अचानक दावैगा, जम आन० ॥ टेक | छिनछिन कटत घटत थितै ज्यों जल, अंजुलिको झर जावैगा । जम आन० || १ || जन्म तालतरुतें पर जियफल, कोलग बीच रहावैगा । क्यों न विचार करै नर आखिर, मरन महीमें आवैगा ॥ जम: आन० || २ || सोवत मृत जागत जीवत ही, श्वासा जो थिर थावैगा । जैसें कोऊ छिपै सदासों, कबहूं अवशि पलावैगा ॥ जम आन० || ३ || कहूं कबहुं कैसें हू कोऊ: - १ नाश की । २ भ्रमणकी आदत । ३ आयु । ४ जन्मरूपी ताड़वृक्षसे पड़ करके जीवरूपी फल वीचमें कवतक रहेगा ? वह तो नीचे पड़ेगा ही, अर्थात् मरेगा ही । ५ भागेगा ।.
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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