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________________ प्रथमभाग। अंतकसे न वचावैगा। सम्यकज्ञानपियूष पियेसों, दौल अमरपद पावैगा । जम आन० ॥ ४॥ ८२. - - ___ छांड़त क्यो नहिरे, हे नर ! रीति अयानी । वारवार सिख देत सुगुरु यह, तू दे आनाकानी ॥ छोड़त०॥ टेक ।। विषय न तजत न भजत बोध व्रत, दुखसुखजाति न जानी । शर्म चहै न लहै शठ ज्यों घृतहेत विलोवत पानी ॥ छांइत० ।। १ ।। तन धन सदन स्वजनजन तुझसों, . यह परजाय विरानी । इन परिनमन-विनश-उपजनसों, ते दुख सुखकर मानी ॥ छोड़त० ॥ २॥ इस अज्ञानतें चिरदुख पाये, तिनकी अंकथ कहानी । ताको तज दृग-ज्ञान-चरन- भज, निजपरनति शिवदानी ।। छाड़त०॥ ३॥ यह दुर्लभ नरभव सुसँग लहि, तत्त्व-लखावन वानी । दौल न कर अब परमें ममता, धर समता सुखदानी ॥ छांडत०॥ ४॥ १ जमराजसे । २ सम्यग्ज्ञानरूपी अमृत ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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