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________________ ७३ ७९. प्रथमभाग। शमता लयी। दौल पूरैवअलभ आनंद, लह्यो • भवथिति जयी ॥ जिन० ॥३॥ जिनवैन सुनत, मोरी भूल भगी । जिनवैन. ॥टेका कर्मस्वभाव भाव चेतनको, भिन्न पिछानन सुमति जगी । जिन० ॥ १ ॥ जिन अनुभूति सहज ज्ञायकता, सो चिर रुष-तुप-मैल-पगी। स्यादवाद-धुनि-निर्मल-जलतें, विमल भई समभाव लगी। जिन ॥२॥ संशयमोहभरमता विघटी, प्रगटी आतैमसोज सगी । दौल अपूरव मंगल पायो, शिवसुख लेन होस उमगी॥ जिन०॥३॥ जिनवानी जान सुजान रे । जिनवानी० ॥ टेक ।। लागरही चिरतें विभावता, ताको कर अवसान रे । जिनवानी० ॥ १॥ द्रव्यक्षेत्र अरु कालभावकी, कथनीको पहिचान रे । जाहि पिछाने खपरभेद सब, जाने परत निदान रे । १ पूर्वमें जिसका लाभ नहीं हुआ ऐसा । २ निजपरणति ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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