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________________ ७२ जैनपदसंग्रह। शैy ॥ चित चिंतकै० ॥ १ ॥ गज्ञानभानते मिथ्या, अज्ञानतम दमूं। कब सर्व जीव प्रोणिभूत, सत्त्वसों छy ॥ चित चिंतकै० ॥ २ ॥ जैलमल्ललिप्त-कल सुकर्ल-, सुबल्ल परिन । दलकें त्रिशल्लमल्ल कव, अटल्लप, पमू । चित चिंतक ॥३॥ कब ध्याय अज अमरको फिर न, भवविपिन भमूं। जिन पूर कौले दौलको यह, हेतु हौं नमूं ॥ चितकै० ॥ ४ ॥ ७८. जिन छवि लखत यह बुधि भयी । जिन ॥ टेक ॥ मैं न देह चिदंकमय तन, जड़ फरसरसमयी। जिनछवि० ॥ १ ॥ अशुभशुभफल कम दुखसुख, पृथकता सब गयी । रागदोषविभावचालित, ज्ञानता थिर थयी। जिनछवि० ॥ २ ॥ परिगहन आकुलता दहन, विनशि १ शमन करूं, शांत करूं । २ दर्शन और ज्ञानरूपी सूर्यसे । ३ दशप्राणमयी । ४ जड़ । ५ शरीर । ६ शुक्लध्यानके वलसे। ७ माया, मिथ्यात, निदानरूप तीन शल्यरूपी पहलवानोंको । ८ मोक्षपद । ९ प्रतिज्ञा ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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