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________________ प्रथमभाग। ७१ अनादि दो, निगोदमें परा । तहँ अंकके असंख्यभाग, ज्ञान ऊवरा ॥ चिद०॥ २॥ तहां भव अंतर मुहूर्तके, कहे गनेश्वरा । छयासठ सहस त्रिशत छतीस, जन्मधर मरा ॥ चिद० ॥ ३ ॥ यों वशि अनंतकाल फिर, तहांतें नीसरा । भूजलं अनिल अनल प्रतेक, तरुमें तन धरा ।। चिद०॥ ४ ॥ अंधरीर कुंथु कान, मच्छ अवतरा । जलथल खचर कुनर नरक, असुर उपज मरा, ॥ चिद० ॥ ५ ॥ अवके सुथल सुकुल सुसंग, वोध लहि खरा । दोलत त्रिरत्नसाध लाध, पद अनुत्तरा ।। चिद०॥६॥ ७७. . चित चिंतकै चिदेश कव, अशेष पर यूं। . दुखदा अपार विधि दुचार,-की चमूं दमूं ॥ चित चिं०॥ टेक ॥ तजि पुण्यपाप थाप आप, आपमें रमूं। कव राग-आग शर्म-वाग, दागनी १ आत्मा । २ सम्पूर्ण । ३ परपदार्थ । ४ वमन कर दूं-छोड़ दूं। ५ कर्म । ६ दो चार अर्थात् आठ । ७ फौज । ८ आत्मामें। ९ रमण करूं । १० कल्याणरूप वागकी जलानेवाली ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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