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________________ १४० जैनपदसंग्रह। सुमत कहै सखियनसों, सोहं सीख सिखाऊं री ॥ इस० ॥३॥ मैं न जान्यो री ! जीव ऐसी करैगो ॥ मैं०॥टेक।। मोसौं विरति कुमतिसों रति कै, भवदुख भूरि भरैगो । मैं ॥१॥ खारथ भूलि भूलि परमारथ, विपयारथमें परैगो ॥ मैं० ॥२॥ द्यानत जव समतासों राचे, तब सब काज सरैगो ॥ मैं० ॥३॥ ३०२। तुम चेतन हो ॥ तुम० ॥ टेक ॥ जिन विषयनि सँग दुख पाचै सो, क्यों तज देत न हो ॥ तुम० ॥१॥ नरक निगोद कषाय भमाचे, क्यों न सचेतन हो । तुम० ॥२॥ द्यानत आपमें आपको जानो, परसों हेत न हो । तुम० ॥३॥.. तें कहुँ देखे नेमिकुमार ॥ तै० ॥ टेक ॥ पशुगन बंध छुड़ावनिहारे, मेरे प्रानअधार ॥ तै० ॥१॥ बालब्रह्मचारी गुनधारी, कियो मुकतिसों प्यार ॥ तें ॥२॥ धानत कव मैं दरसन पाऊं, धन्य दिवस धनि बार ॥ तै०॥३॥ - - - १ सिद्ध होगा। २ ममत्व ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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