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________________ चतुर्थभाग | १३९ पहले कीजै कौन कुंरत ॥ एक० ॥ १ ॥ धर्मप्रसाद सबै शुभ सम्पति, जिन पूजें सब दुरत दैरत । चक्र उछाह कियो सुत मंगल, द्यानत पायो ज्ञान तुरत ॥ एक० ॥ २ ॥ '२९८ । तू ही मेरा साहिव सच्चा सांई ॥ तू ही० ॥ टेक ॥ काल अनन्त रुल्यो जगमाहीं, आपद बहुविधि पाई ॥ तू ही० ॥ १ ॥ तुम राजा हम परजा तेरे, कीजिये न्याय न कांई ॥ तू ही ० ॥ २ ॥ द्यानत तेरा करमनि घेरा, लेहु छुड़ाय गुसाई ॥ तू ही ० ॥ ३ ॥ • २९९ । सच्चा सांई, तूही है मेरा प्रतिपाल || सच्चा० ॥ टेक ॥ तात मात सुत शरन न कोई, नेह लगा है तेरे नाल (१) ॥ - सच्चा० ॥ १ ॥ तनदुख मनदुख जनदुख माहीं, सेवक निपट विहाल || सच्चा० ॥ २ ॥ द्यानत तुम वहु तारनहारे, हमहुको लेहु निकाल || सच्चा० ॥ ३ ॥ ३०० । इस जीवको, यों समझाऊं री ! | इस० ॥ टेक ॥ अरस अफरस अगंध अरूपी, चेतन चिन्ह बताऊं री || इस० ॥ १ ॥ तत तत तत तत, थेई घेई घेई येई तन ननं री री गाऊं री ॥ इस० ॥ २ ॥ द्यानत, १ कृत्य-काम । २ पाप । ३ दूर भागें ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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