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________________ चतुर्थभाग। ३०४। कौन काम मैंने कीनों अब, लीनों नरक निवास हो ॥ कौन० ॥ टेक ॥ बहुतनि तप करि सुर शिव साध्यो, मैं साध्यो दुखरास हो ॥ कौन० ॥१॥ नरभव लहि वहु जीव सताये, साधे विपय विलास हो। पीतम रिपु रिपु पीतम जाने, मिथ्यामत-विसवास हो॥ कौन० ॥२॥ धनके साथी जीव बहुत थे, अव दुख एक न पास हो । यहां महादुख भोग शूटिये, राग दोपको नास हो ॥ कौन० ॥३॥ देव धरम गुरु नक तत्त्वनिकी, सरधा दिढ़ अभ्यास हो । धानत हौं सुखमय अविनाशी, चेतनजोति प्रकाश हो ॥ कौन० ॥४॥ ३०५। नेमीश्वर खेलन चले, रंग हो हो होरी, सुगुन सखा संग भूप रंग, रंग हो हो होरी ॥ नेमीश्वर ॥ टेक ॥ महा विराग वसन्तमें, रंग हो हो होरी। समझ सुवास अनृप रंग, रंग हो हो होरी ॥ नेमीश्वर० ॥१॥ बसन महाव्रत धारकै, रंग हो हो होरी । छिरके छिमा वनाय रंग, रंग हो हो होरी। पिचकारी कर प्रीतिकी रंग रंग हो हो होरी । रीझ रंग अधिकाय रंग, रंग हो हो होरी ॥ नेमीश्वर० ॥२॥ ज्ञान गुलाल सुहावनी रंग, रंग हो हो होरी । अनुभव अतर सुख्याल - १ प्यारे मित्र । - -
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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