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________________ १३८ जैनपदसंग्रह। कारी ॥ शुद्ध० ॥ १ ॥ अमल अचल अविकलप अजलपी, परमानंद चेतना धारी ॥ शुद्ध० ॥२॥ द्यानतं द्वैतभाव तज हूजै, भाव अद्वैत सदा सुखकारी॥ शुद्ध० ॥३॥ २९५। चौवीसौंको वंदना हमारी ॥ चौवीसौं० ॥ टेक ॥ भवदखनाशक सुखपरकाशक, विधनविनाशक मंगलकारी ॥ चौवीसौं० ॥१॥ तीनलोक तिहुँकालनिमाहीं, इन सम और नहीं उपगारी ॥ चौवीसौं० ॥ ॥२॥ पंच कल्यानक महिमा लखकै, अदभुत हरप लहैं नरनारी ॥ चौवीसौं० ॥ ३॥ धानत इनकी कौन चलावै, विंव देख भये सम्यकधारी ॥ चौवीसौं० ॥४॥ - सेऊं स्वामी अभिनन्दनको ॥ सेऊ० ॥ टेक ॥ लेकै दीप धूप जल फल चरु, फूल अछत चंदनको ॥ सेऊ. ॥१॥ नाचौं गाय वजाय हरपसों, प्रीत करों चंदनको ।। सेऊ० ॥२॥ द्यानत भगतिमाहि दिन वीतें, जीतें भव फंदनको ।। सेऊं ॥३॥ २९७। एक समय भरतेश्वर स्वामी, तीन वात सुनी तुरत फुरतः ॥ एक०॥ टेक ॥ चक्र रतन प्रभुज्ञान जनम सुत, १ मौनावलम्बी। २:ऋषभदेवको केवलज्ञानका प्रगट होना । - -
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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