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________________ चतुर्थभाग | १३७ गुनघर वेटो, कामदेव सुत ही ॥ तेरें० ॥ १ ॥ नव भव नेह जानकै कीनों, दानी श्रेयस ही । मात निचै शिवगामी, पहले सुत सब ही || तेरै० ॥ २ ॥ विद्याधरके नृप कर कीनौं, साले गनधर ही । बेटीको गर्ननी पद दीनों, आरजिका सत्र ही ॥ तेरै० ॥ ३ ॥ पोता आप वरावर कीनों, महावीर तुम ही । द्यानत आपन जान करत हो, हम हू सेवक ही ॥ तेरै ० ॥ ४ ॥ २९३ । कर मन ! वीतरागको ध्यान || कर० ॥ टेक ॥ जिन जिनराज जिनिंद जगतपति, जगतारन जगजान ॥ कर० ॥ १ ॥ परमातम परमेस परमगुरु, परमानंद प्रधान | अलख आदि अनन्त अनूपम, अजर अमर अमलान || कर ॥ २ ॥ निरंकार अविकार निरंजन, नित निरमल निरमान । जती व्रती मुन ऋपी सुखी प्रभु, नाथ धनी गुन ज्ञान ॥ कर० ॥ ३ ॥ सित्र सरवज्ञ सिरोमनि साहब, सांई सन्त सुजान । द्यानत यह गुन नाममालिका, पहिर हिये सुखदान || कर० ॥ ४ ॥ २९४। 1 शुद्ध स्वरूपको वंदना हमारी ॥ शुद्ध० ॥ टेक ॥ एक रूप वसु रूप विराजे, सुगुन अनन्त रूप अवि१ आकाओं में मुख्य ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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