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जैनपदसंग्रह। एक एक इन्द्री दुखदानी, पांचौं दुखत नही ॥ अव० ॥२॥ द्यानत संजम कारजकारी, धरौ तरौ सव ही। अव० ॥३॥
२९०। सोई कर्मकी रेखपै मेख मारै ॥ सोई० ॥ टेक ॥ आपमें आपको आप धारै ॥ सोई० ॥१॥ नयो बंधन करे, बध्यो पूरव झरै, करज काढ़े न देना विचारै ॥ सोई० ॥ २ ॥ उदय विन दिये गल जात संवर सहित, ज्ञान संजुगत जव तप सँभारै ॥ सोई० ॥३॥ ध्यान तरवारसों मार अरि मोहको, मुकति तिय बदन धानत निहारै ।। 'सोई० ॥४॥
प्रभुजी मोहि फिकर अपार ॥ प्रभु० ॥ टेक ॥ दान प्रत नहिं होत हमपै, होहिंगे क्यों पार ॥ प्रभु ॥१॥ एक गुन थुत कहि सकत नहि, तुम अनन्त भंडार । भगति तेरी वनत नाहीं, मुकतकी दातार ।। प्रभु० ॥ २ ॥ एक भवके दोष केई, थूल कहूँ पुकार । तुम अनन्त जनम निहारे, दोष अपरंपार ॥ प्रभु० ॥३॥ नाव दीनदयाल तेरो, तरनतारनहार । वंदना द्यानत : करत है, ज्यों वनै त्यों तार ॥ प्रभु०॥४॥
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२९२।।
तेरै मोह नहीं ॥ तेरै० ॥ टेक ॥ चक्री पूत सु