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________________ चतुर्थभाग | १३५ टेक ॥ सेत वाल यह दूत कालको, जोवन मृग जरा चाघिनि खागी ॥ आरती० ॥ १ ॥ चक्री भरत भावना भाई, चौदह रतन नवों निधि त्यागी । द्यानत दीच्छा लेत महूरत, केवलज्ञान कला घट जागी ॥ आरती० ॥ २ ॥ २८७ । कहा री कहूं कछु कहत न आवै, बाह्नवल चल धीरज री ॥ कहा० ॥ टेक ॥ जल मलं दिष्ट जुद्धमें जीत्यो, भरत चक्रको वीरज री ॥ कहा० ॥ १ ॥ जोग लियो तन फेननि घर कियो, शोभा ज्यों अलि-नीरेंज री ॥ कहा० ॥ २ ॥ द्यानत बहुत दान तब दै हौं, पै हीँ चरननकी रज री ॥ कहा० ॥ ३ ॥ २८८ । हो श्रीजिनराज नीतिराजा ! कीजै न्याव हमारो ॥ हो० ॥ टेक ॥ चेतन एक सु मैं जड़ बहु ये, दोनों ओर निहारो ॥ हो० ॥ १ ॥ हम तुममाहिं भेद इन कीनों, दीनों दुख अति भारो ॥ हो० ॥ २ ॥ द्यानत सन्त जान सुख दीजै, दुष्टै देश निकारो ॥ हो० ॥ ३ ॥ -२८९ । अव समझ कही ॥ अव० ॥ टेक ॥ कौन कौन आपद विषयनितैं, नरक निगोद सही || अब० ॥ १ ॥ १ महयुद्ध | २ दृष्टियुद्ध । ३ सर्पने । ४ कमल ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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