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________________ ११० जैनपदसंग्रह । मनरंजनो ॥ तुम० ॥ १॥ निराकार जमी अकामी, अमलं देह अमंजनो ॥ तुम० ॥२॥ करौ धानत मुकतिगामी, सकल भव-भय-मंजनो ॥ तुम० ॥३॥ २०९। . जिनवानी पानी ! जान लै रे॥जिनवानी०॥टेक॥ छहों दरच परजाय गुन सरव, मन नीके सरधान लै रे ॥ जिनवानी० ॥१॥ देव धरम गुरु निहचै धर उर, पूजा दान प्रमान लै रे ॥ जिनवानी० ॥२॥ द्यानत जान्यो जैन वखान्यो, ॐ अक्षर मन आन लै रे ॥ जि: नवानी० ॥३॥ोद्ध __ . . २१० । राग-लत। .ये दिन आले लहे जी लहे जी॥ये॥टेक ॥ देव धरम गुरूकी सरधा करि, मोह मिथ्यात दहेजी दहेजी ॥ ये० ॥ १॥ प्रभु पूजे सुने आगमको, सतसंगतिमाहिं रहे जी रहे जी ॥ ये० ॥२॥ धानत अनुभव ज्ञानकला कछु, संजम भाव गहे जी गहे जी ॥ ये०॥३॥ . . . ,२११। । . इक अरज सुनो साहिव मेरी ॥ इक० ॥ टेक॥ चेतन एक बहुत जड़ घेखो, दई.आपदा वहुतेरी ॥ ॥ इक० ॥ १॥ हम तुम एक दोय इन कीने, विन कारन बेरी, गेरी ॥ इक०॥२॥ धानत तुम तिहुँ ज. १ यमी यावज्जीवत्यागी। .. : .:. :.:
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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