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________________ चतुर्थभाग। १११ गके राजा, करो जु कडू खातिर मेरी ॥ इक० ॥ ३ ॥ २१२। जिन साहिब मेरे हो, निवाहिये दासको ॥ जिनक ॥ टेक ॥ मोह महातम घेर भखो है, कीजिये ज्ञान प्रकासको ॥ जिन० ॥१॥ लोभरोगके वैद प्रभूजी, औषध द्यो गर्द नासको ।। जिन०॥२॥द्यानत क्रोधकी आग बुझायो, बरस छिमा जलरासको ॥ जिन०॥ २१३१ चेतन ! मान लै बात हमारी ॥ चेतन० ॥ टेक ॥ गुदगल जीव जीव पुदगल नहिं, दोनोंकी विधि न्यारी ॥ चेतन० ॥१॥ चहुँगतिरूप विभाव दशा है, मोखमाहिं अविकारी । द्यानत दरवित सिद्ध विराजै, सोहं जपि मुखकारी ।। चेतन०॥२॥ २१४। निज जतन करो गुन-रतननिको, पंचेन्द्रीविपय सभी तसकर । निज०॥ टेक ।। सत्य कोट खाई करुनामय, बाग विराग छिमा भुवि भर ॥ निज० ॥ १ ॥ जीव भूप तन नगर वसे है, तहँ कुतवाल धरमको कर ।। । निज० ॥२॥ द्यानत जव भंडार न जावै, तव सुख पाचे साहु अमर ॥ निज०॥३॥ . १ धीमारी। - -
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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