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________________ चतुर्थभाग। २०५। वे प्राणी ! सुज्ञानी, जान जान जिनवानी ॥०॥ ॥ टेक ॥ चन्द सूर हु दूर करें नहि, अन्तरतमकी हानी ॥०॥१॥ पच्छ सकल नय भच्छ करत है, स्वादवादमें सानी ॥ ३० ॥२॥धानत तीनभवन-मन्दिरमें, दीवट एक वखानी ॥ ३० ॥३॥ २०६। लाग रह्यो मन चेतनसों जी ॥ लाग० ॥ टेक ॥ सेवक सेवसेव सेवक , मिल, सेवा कौन करै पनसों जी ॥ लाग० ॥१॥ बात सुधा पी वम्यो विषय विप, क्यों कर लागि सके सलसी जी ॥ लाग०॥२॥ द्यानत आप-आप निरविकलप, कारज कवन भवन निवसों जी ॥ लाग० ॥३॥ २०७। ___ हम आये हैं जिनभूप!, तेरे दरसनको ॥ हम० ॥ टेक ।। निकसे घर आरतिकूप, तुम पद परसनको ॥ हम० ॥ १॥ वैननिसों सुगुन निरूप, चाहँ दरसनकों ॥ हम०॥२॥धानत ध्यावे मन रूप, आनंद परसन को ॥ हम० ॥३॥ २०८॥ तुम तार करुनाधार खामी! आदिदेव निरंजनो। ॥ तुम० ॥ टेक ॥ सार जग आधार नामी; भविक जन
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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