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________________ तो ९२ . जैनपदसंग्रह । ॥ जैन० ॥७॥ घारौं घातै जीवको, रख लेहु उवार । द्यानत धर्म न भूलिये, संसार असार । जैन० ॥८॥ - १६८ । राग-आसावरी जोगिया। ज्ञानी ऐसो ज्ञान विचारै ।। ज्ञानी० ॥ टेक ॥राज सम्पदा भोग भोगवे, बंदीखाना धारै ॥ ज्ञानी० ॥१॥ धन जोवन परिवार आपत, ओछी ओर निहार । दान शील तप भाव आपतै, ऊंचेमाहिं चितारै ॥ ज्ञानी० ॥ ॥२॥ दुख आये धीरज धर मनमें, सुख वैराग सँभार। आतम दोष देखि नित झूरै, गुन लखि गरव विडारै ॥ ज्ञानी० ॥३॥ आप बड़ाई परकी निन्द नाहिं उचारै । आप दोष परगुन मुख भाप, मनतें शल्य निवारै ।। ज्ञानी० ॥४॥ परमारथ विधि तीन जोगसौं, हिरदै हरष विथारै । और काम न करै जु करै तो, जोग एक दो हारै ।। ज्ञानी० ॥५॥ गई वस्तुको सोचै नाही, आर्गमचिन्ता जारै । वर्तमान वतै विवेकसौं, ममता बुद्धि विसारै ।। ज्ञानी० ॥ ६ ॥ वालपने विद्या अभ्यासै, जोवन तप विस्तारै । वृद्धपने सन्यास लेयकै, आतम काज सँभारे ॥ ज्ञानी० ॥ ७॥ छहों दरव नव तत्त्वमाहितै, चेतन सार निकारै । धानत मगन सदा तिसमाहीं, आप तरै पर तारै ॥ ज्ञानी० ॥८॥ १ आगामी-भविष्यकी चिन्ता ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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