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________________ १०६ जैनपदसंग्रह | चेतन० ॥ टेक ॥ ऐसो नरभव पायकैं, काहे विषया लबलाई ॥ चेतन० ॥ १ ॥ नाहीं तुमरी लाईकी, जोवन धन देखत जाई । कीजे शुभ तप त्यागकै, धानत हूजे अकपाई ॥ चेतन० ॥ २ ॥ १९६ । मिजी तो केवलज्ञानी, ताहीको ध्याऊं ॥ नेमिजी० ॥ टेक ॥ अमल अखंडित चेतनमंडित, परमपदारथ पाऊं ॥ नेमिजी० ॥ १ ॥ अचल अवाधित निज गुण छाजत, वचन में कैसे बताऊं । द्यानत ध्याइये शिवपुर जाइये, बहुरि न जगमें आऊं ॥ नेमि ० ॥ २ ॥ १९७ । चेतनजी ! तुम जोरत हो धन, सो धन चलत नहीं तुम लार ॥ चेतन० ॥ टेक ॥ जाको आप जान पोपत हो, सो तन जलकै है है छार ॥ चेतन० ॥ १ ॥ विषय भोग सुख मानत हो, ताको फल है दुःख अपार । यह संसार वृक्ष सेमेरको, मान को हौं कहत पुकार ॥ चेतन० ॥ २ ॥ १९८ । प्राणी ! तुम तो आप सुजान हो, अव जी सुजान हो ॥ प्राणी० ॥ टेक ॥ अशुचि अचेत विनश्वर रूपी, १- योग्यता । २ सेमर वृक्षके फूल देखनेमें सुन्दर होते हैं, परन्तु उनमें जो फल लगते हैं, वे निस्सार होते हैं । .
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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