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________________ चतुर्थभाग । ८७, कहिये, तिनको कैसे कर गहिये ॥ साधो० ॥ ५ ॥ तबaौं विपया रस भावे, जवलौं अनुभव नहिं आवै । जिन अमृत पान ना कीना, तिन और रसन चित दीना ॥ साधो० ॥ ६ ॥ अब बहुत कहाँ लौं कहिए, कारज कहि चुप है रहिये | ये लाख बातकी एक, मत गहो वियकी टेक || साधो० ॥ ७ ॥ जो तजै विपयकी आसा, यात पावै शिववासा । यह सतगुरु सीख बताई, काह विरले जिय आई ॥ साधो० ॥ ८ ॥ 1 १६२ | राग - आसावरी । हमको कैसे शिवसुख होई || हमको ० ॥ टेक ॥ जे जे मुकत जानके कारण, तिनमेंको नहि कोई ॥ हमको० ॥ १ ॥ मुनिवरको हम दान न दीना, नहिं पूज्यो जिनराई | पंच परम पद वन्दे नाहीं, तपविधि बन नहिं आई || हमको ० ॥ २ ॥ आरत रुद्र कुध्यान न त्यागे, धरम शुकल नहिं ध्याई । आसन मार करी आसा दिढ़, ऐसे काम कमाई ॥ हमको ० ॥ ३ ॥ विषय कषाय विनाश न हुआ, मनको पंगु न कीना । मन वच काय जोग थिर कर, आत्मतत्त्व न चीना ॥ हमको ० ॥ ४ ॥ मुनि श्रावकको धरम न धारयो, समता मन नहिं आनी । शुभ करनी करि फल अभिलाप्यो, ममतावुध अधिकानी ॥ हमको ० ॥ ५ ॥ रामा रामा धन धन कारन, पाप अनेक उपायो । तब हू तिसना भई न पूरन,
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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