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________________ जैनपदसंग्रह | ८६ अधिक सकल - सागरतैं, अजहूं नाहिं अघाना रे ॥ भाई ० ॥ ५ ॥ तोहि मरण जे माता रोई, आसुँ जल सगलाना रे । अधिक होय सब सागरसेती, अजहूँ त्रास न आना रे || भाई ० ॥ ६ ॥ गरभ जनम दुख वाल विरध दुख, वार अनन्त सहाना रे | दरवलिंग धरि जे तन त्यागे, तिनको नाहिं प्रमाना रे || भाई० ॥ ७ ॥ विन समभाव सहे दुख एते, अजहूँ चेत अयाना रे | ज्ञानसुधारस पी लहि द्यानत, अजर अमरपद थाना रे ॥ भाई० ॥ ८ ॥ १६१ । राग- धमाल । साधो ! छोड़ो विषय विकारी । जातैं तोहि महा दुखकारी ॥ साधो ० ॥ टेक ॥ जो जैनधर्मको ध्यावै, सो आतमीक सुख पावै ॥ साधो० ॥ १ ॥ गज फरस - विषै दुख पाया, रस मीन गंध अलि गाया । लखि दीप शर्लभ हित कीना, मृग नाद सुनत जिय दीना ॥ सा - धो० ॥ २ ॥ ये एक एक दुखदाई, तू पंच रमत है भाई । यह कौंनें, सीख बताई, तुमरे मन कैसें आई ॥ साधो० ॥ ३ ॥ इनमाहिं लोभ अधिकाई, यह लोभ गतिको भाई । सो कुगतिमाहिं दुख भारी, तू त्याग विषय मतिधारी ॥ साधो० ॥ ४ ॥ ये सेवत सुख से लागेँ, फिर अन्त प्राणको त्यागें । तातैं ये विषफल १ भ्रमर । २ पतंग |
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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