SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . प्रथमंभाग । २९ ॥ टेक ॥ परं पद- चाह- दाह -गदनाशन, तुम वचभेपज - पान सरस । शिवमग० ॥ १ ॥ गुणचितवत निज अनुभव प्रघटै, विघटै विधिठग दुविध तरस | शिवमग० ॥ २ ॥ दौल अवांची संपति सांची पाय र थिर राच सरस | शिवमग० ||३|| २६. मेरी सुध लीजे रिपभस्वाम । मोहि कीजें शिवपथगाम ॥ टेक ॥ मैं अनादि भवभ्रमत दुखी अव, तुम दुखमेटत पाधाम । मोहि मोह घेरा कर चेरा, पेरा चहुंगति विपतठाम । मेरी० ॥ १ ॥ विपयन मन ललचाय हरी मुझ, शुद्धज्ञान संपति ललाम | अथवा यो जड़को न दोष मम, दुखसुखता, परनतिसुकाम || मेरी ० ॥ २ ॥ भाग जगे अब चरन जपे तुम, वच सुनके गहे सुरौनग्राम | परमविराग ज्ञानमय मुनिजन, जपत तुमारी सुदाम || मेरी - || ३ || निर्विकार संपतिकृति १ पुद्गलसम्बन्धी चाहका दाहरूपीरोग नाशकरनेके लिये दवाई | २ अवाच्य, जिसका वर्णन न हो सके । ३ गुणोंके समूह । ४ गुणोंकी माला ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy