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________________ जैनपदसंग्रह। कर्म कर्मफलमाहिं न राचे, ज्ञानसुधारस पोजे॥ हे जिन०॥३॥ मुझ कारजके तुम कारन वर, अरज दौलकी लीजे । हे जिन०॥४॥ : - २४. शामरियाके नाम जपेते, छूटजाय भवभामरियां । शाम० ॥ टेक ॥ दुरित दुरंत पुन पुरत फुरत गुन, आतमकी निधि आगरियां । विघटत है परदाह चाह झट, गटकत समरस गागरियां । शाम० ॥ १॥ कटत कलंक कर्म कलसायन, प्रगटत शिवपुरडाँगरियां, फटत घटाधन मोह छोह हट प्रगटत भेद ज्ञान घरियां। शामगा। कृपाकटाक्ष तुमारीहीतें, जुगलनागविपदा टरियां । धार भये सो मुक्तिरमावर, दौल नमें तुव पागरियां ।। शाम० ॥३॥ - २५. , शिवमगदरसावन स्वरो दरस । शिवमग० १ भवभ्रमण । २ पाप। ३ छिपते हैं। ४ स्फुरित होता है। ५ गटकते हैं अर्थात् पीते हैं । ६ कालिख । ७ मोक्षका रास्ता। ८ रागद्वेष । ९ तुह्मारा नाम धारण करकें । १० आपको।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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