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________________ जैनपदसंग्रह। तेरी, छविपर वारों कोटि काम । भव्यनिके भवहारन कारन, सहज यथा तमहरन घाम ॥ मेरी० ॥ ४॥ तुम गुनमहिमा कथनकरनको, गिनत गैनी निजबुद्धि खोम । दौलतनी अज्ञान परन ती, हे जगत्राता कर विराम | मेरी०॥५॥ २७. - मोहि तारो जी क्यों ना ? तुम तारक त्रिजग त्रिकालमें, मोहि० ॥ टेक ।। मैं भवउदधि पखो दुख भोग्यो, सो दुख जात कहो ना। जामनमरन अनंततनो तुम, जाननमाहिं छिप्यो ना ॥ मोहि ॥ १॥ विषय विरसरस विपम भख्यो मैं, चख्यो न ज्ञान सलोना । मेरी भूल मोहि दुख देवै, कर्मनिमित्त भलो ना ॥ मोहि ॥२॥ तुम पदकंज धरे हिरदै जिन, सो भवताप तप्यो ना। सुरगुरुहूके वचनकरनकर, तुम जसगगन नप्यो ना ॥ मोहि०॥३॥ कुगुरु कुदेव कुश्रुत सेये मैं, तुम मत हृदय घखो ना । परम १ सूरज । २ गणधर । ३ कोताही कमी । ४ की। ५ वचनरूपी किरणोंसे अथवा हाथों से । ६ मापा नहीं गया।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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