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________________ चतुर्थभाग | ५९ तापन छेदन कसना, कनकपरीच्छा भाय । द्यानत देव धरम गुरु आगम, परखि गहो मनलाय ॥ सबको ० ॥४॥ ११३ | राग- गौरी | तुमको कैसे सुख है मीत ! ॥ टेक ॥ जिन विपयनि सँग बहु दुख पायो, तिनहीसों अति प्रीति ॥ तुमको ० ॥ १ ॥ उद्यमवान वागे चलनेको, तीरथसों भयभीत । धरम कथा कथनेको मूरख, चतुर मृप-रसरीत ॥ तुमको ० ॥ २ ॥ नाटं विलोकनमें बहु समझौ, रंच न दरेंस प्रतीत । परमागम सुन ऊंघन लागौ, जागौ विकथा गीत || तुमको० ॥ ३ ॥ खान पान सुनके मन हरपै, संजम सुन है ईत । द्यानत तापर चाहत होगे, शिवपद सुखित निचीत ॥ तुमको० ॥ ४ ॥ ११४ । वीर ! री पीर कासों कहिये ॥ टेक ॥ धौर्य अनृपम अचल मुकति गति, छांड़ि चहूँगति दुख क्यों सहिये || वीर० ॥ १ ॥ चेतन अमल शरीर मलिन जड़, तासों प्रीति कहाँ क्यों चहिये । अनुभव अम्रत विपय विषम फल, त्यागि सुधारसँ विप क्यों गहिये ॥ वीर० ॥ २ ॥ तिहुँ जगठाकर रतनत्रयनिधि, चाकर १ बगीचेकी शेर करनेको तयार । २ झूठ । ४ जिनदर्शन | ५ निश्चिन्त । ६ नित्य, स्थिर । ३ नाटक । ७ अमृत ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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