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________________ जैनपदसंग्रह | ५८ नौं, राग दोपकों त्याग || मेरे० ॥ ४ ॥ द्यानत यह विधि जव वनि आवै, सोई घड़ी बड़भाग || मेरे ० ॥५॥ १११ | राग - ख्याल । लागा आतमरामसों नेहरा ॥ टेक ॥ ज्ञानसहित मरना भला रे, छूट जाय संसार । धिक! परौ यह जीवना रे, मरना वारंवार || लागा० ॥ १ ॥ साहिब साहिव मुंहतैं कहते, जानें नाहीं कोई । जो साहित्रकी जाति पिछानें, साहिव कहिये सोई || लागा० ॥ २ ॥ जो जो देखौ नैनोंसेती, सो सो विनसे जाई । देखनहारा मैं अविनाशी, परमानन्द सुभाई || लागा० ॥३॥ जाकी चाह करैं सब प्रानी, सो पायो घटमाहीं । द्यात चिन्तामनिके आये, चाह रही कछु नाहीं ॥ लागा० ॥ ४ ॥ ११२ । राम-गौरी | सबको एक ही धरम सहाय ॥ टेक ॥ सुर नर नारक तिरयक् गतिमें, पाप महा दुखदाय || सबको० ॥ १ ॥ गज हरि दह अहि रण गर्दै चॉरिधि, भूपति भीर पलाय । विघन उलटि आनन्द प्रगट है, दुलभ सुलभ ठहराय || सबको० ॥ २ ॥ शुभतें दूर वसत ढिग आवै, अघतें करतें जाय । दुखिया धर्म करत दुख नासै, सुखिया सुख अधिकाय || सबको० ॥ ३ ॥ ताड़न १ सिंह । २ सर्प । ३ बीमारी । ४ समुद्र |
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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