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________________ जैनपदसंग्रह। १२३ ___ आतमज्ञान लखें सुख होइ ॥ टेक ॥ पंचेन्द्री मुख मानत भोंदू, याम सुखको लेश न कोइ ॥ आतम० ॥१॥ जैसे खाज खुजावत मीठी, पीछत दुखत दे रोइ । रुधिरपान करि जोंक मुखी है, मूतत वहुदुख पावै सोइ ॥ आतम०॥२॥ फरस दन्ति-नस मीन-गंध अलि, रूप शलभ मृग नाद हि लोइ । एक एक इन्द्र नितें प्राणी, दुखिया भये गये तन खोइ ॥ आतम० ॥३॥ जैसे कूकर हाड़ चचोरै, त्यों विषयी नर भोगे भोई॥ द्यानत देखो राज त्यागि नृप, वन वसि सहें परीपह जोइ ॥ आतम० ॥४॥ १२४ मैं एक शुद्ध ज्ञाता, निरमलसुभाषराता ॥ टेक ॥ ईगज्ञान चरन धारी, थिर चेतना हमारी ॥ मै० ॥१॥ तिहुँ काल परसों न्यारा, निरद्वंद निरविकारा ॥ मैं. ॥२॥ आनन्दकन्द चन्दा, धानत जगत सदंदा ॥ ॥३॥ अव चिदानन्द प्यारा, हम आपमें निहारा ॥ मैं ॥४॥ सुन! जैनी लोगो, ज्ञानको पंथ कठिन है॥टेक ॥ . १ पिया हुआ खून बैंचकर वाहिर निकालते समय । २ हाथी । ३ भौंरा । ४ पतंग । ५ भोग । ६ दर्शन ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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