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________________ चतुर्थभाग. | .७४ । ज्ञानी जीव दया नित पालै ॥ टेक ॥ आरभतें-परघात होत है, क्रोध घात निज टालें ॥ ज्ञानी० ॥ १ ॥ हिंसा त्यागि दयाल कहावै, जलै कपाय वदनमें । बाहिर त्यागी अन्तर दागी, पहुँचै नरकसदेनमें ॥ ज्ञानी० ॥ २ ॥ करै दया कर आलस भावी, ताको कहिये पापी । शांत सुभाव प्रमाद न जाकै, सो परमारथव्यापी ॥ ज्ञानी० ॥ ३ ॥ शिथिलाचार निरुद्यमे रहना, सहना वहु दुख भ्राता । द्यानत बोलन डोलन जीमन, करें जतनसों ज्ञाता || ज्ञानी० ॥ ४ ॥ .७५ । . कारज एक ब्रह्महीसेती ॥ टेक ॥ अंग संग नहि वहिरभूत सव, धन दारों सामग्री तेती ॥ कारज० ॥ १ ॥ सोल सुरग नव दैविकमें दुख, सुखित साँतमें ततकी ती । जा शिवकारन मुनिगन ध्यावै, सो तेरे घट आनंदखेती || कारज० ॥ २ ॥ दान शील जप तप व्रत पूजा, अफल ज्ञान चिन किरिया केती । पंच दरव तोतें नित न्यारे, न्यारी रागदोप विधि जेती | कारज ० ॥ ३ ॥ तू अविनाशी जगपरकासी, द्यानत भासी · ३९ १ नरकरूपी घरमें । २ उद्योगहीन । ३ भोजन, भक्षण । ४ स्त्री । ५ सातवें नरकमें । ६ तत्वका जाननेवाला ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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