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________________ ४० जैनपदसंग्रह। सुकलावती । तजौ लाल! मनके विकलप सब, अनुभवमगन सुविधा एती ॥ कारज० ॥ ४॥ .. • " चेतन खेलै होरी ॥ टेक ॥ सत्ता भूमि छिमा वसन्तमें, समता प्रानप्रिया सँग गोरी ॥ चेतन० ॥१॥ मनको भाट प्रेमको पानी, तामें करुना केसर घोरी। ज्ञान ध्यान. पिचकारी भरिभरि, आपमें छोरै होरा होरी ॥ चेतन० ॥२॥ गुरुके वचन मृदंग वजत हैं, नय दोनों डफ ताल टकोरी । संजम अतर विमल व्रत चोवा, भाव गुलाल भरै भर झोरी ॥ चेतन०॥३॥ धरम मिठाई तप बहु मेवा, समरस आनंद अमल कटोरी।द्यानत सुमति कहै सखियनसों, चिरजीवो यह जुगजुग जोरी ॥ चेतन० ॥४॥ ... ... .. .. . ७७ ... भोर भयो भज श्रीजिनराज, सफल होंहि तेरे सव काज ॥ टेक ॥ धन सम्पत मनवांछित: भोग, सव विधि आन. व. संजोग. ॥ भोर० ॥१॥ कल्पवृच्छ ताके. घर रहै, कामधेनु नित सेवा वहै। पारस चिन्तामनि समुदाय, हितसों आय मिलें सुखदाय ॥ भोर ॥२॥ दुर्लभते सुलभ्य दै जाय, रोग सोग दुख दूर पलायं । सेवा देव करें मन लाय, विंधन उलट मंगल १ इस पदकी सर्व तुकें १५ मात्रांकी चौपाई होती हैं। .. . ..
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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