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________________ २२ जैनपदसंग्रह | छल लोभ न जानें, राग दोष नाहीं उनपाहीं । अमल अखंडित चिगुणमंडित, ब्रह्मज्ञानमं लीन रहाहीं ॥ धनि० ॥ ३ ॥ तेई साधु हैं केवलपद, आर्ट-काट दह शिवपुर जाहीं । द्यानत भवि तिनके गुण गावें, पावैं शिवसुख दुःख नाहीं ॥ धनि० ॥ ४ ॥ ४१ । अब हम आतमको पहिचान्यौ ॥ टेक ॥ जबहीसेती मोह सुट वल, खिनक एकमें भान्यौ ॥ अव० ॥ १ ॥ राग - विरोध - विभाव भजे झर, ममता भाव पलान्यौ | दरसन ज्ञान चरनमें चेतन, भेदरहित परवान्यौ ॥ अव० ॥ २ ॥ जिहि देखें हम अवर न देख्यो, देख्यो सो सरधान्यौ । ताकौ कहो कहें कैसें करि, जा जाने जिन जान्यौ || अव० ॥ ३ ॥ पूरव भाव सुपनवत देखे, अपनो अनुभव तान्यौ । द्यानत ता अनुभव खादत ही, जनम सफल करि मान्यौ ॥ अव० ॥ ४ ॥ ४२ । हमको प्रभु श्रीपास सहाय ॥ टेक ॥ जाके दरसन देखत जब ही, पातैक जाय पलाय ॥ हमको० ॥ १ ॥ जाको इंद फनिंद चक्रधर, चंदै सीस नवाय । सोई १ आत्मीक । २ अष्टकर्मरूपी ईंधन । ३ जिस समयसे । ४ झड़कर, निर्जरा होकर । ५ पाप ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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