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________________ १६ जैनपदसंग्रह | 1 ॥ १ ॥ देव धरम गुरुकी सरधा करि, कुगुरु आदि तज दीजै हो । छहौं दरव नव तत्त्व परखकै, चेतन सार गहीजै हो ॥ आतम० ॥ २ ॥ दरव करम नो करम भिन्न करि, सूक्ष्मदृष्टि धरीजै हो । भाव करमतैं भिन्न जानिके, बुधि विलास न करीजै हो ॥ आतम० ॥ ३ ॥ आप आप जानै सो अनुभव, द्यानत शिवका दीजै हो । और उपाय वन्यो नहिं वनि है, करै सो दक्ष कहीजै हो ॥ आतम ० ॥ ४ ॥ 5 २९ । कर रे ! कर रे ! कर रे !, तू आतम हित कर रे ॥ टेक ॥ काल अनन्त गयो जग भमतें, भव भवके दुख हर रे || कर रे० ॥ १ ॥ लाख कोटि भव तपस्या करतें, जितो कर्म तेरो जर रे । स्वास उस्वासमाहिं सो नासै, जब अनुभव चित धर रे ॥ कर रे० ॥ २ ॥ का ट है न माहीं । राग दोष परिहर रे । काज होय समभाव विना नहिं, भावौ पचि पचि मर रे ॥ कर रे ॥ ३ ॥ लाख सीखकी सीख एक यह, आतम निज, पर पर रे । कोट ग्रंथको सार यही है, द्यानत लख भव तर रे ॥ कर रे ॥ ४ ॥ १ त्याग । २ चाहे |
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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