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________________ चतुर्थभाग। जाको नाम ज्ञान परगास, नाशै मिथ्याजाल ॥ रे मन० ॥३॥ जाके नाम समान नहीं कछु, ऊरध मध्य पताल । सोई नाम जपो नित धानत, छांडि विपय विकराल ॥रे मन० ॥४॥ २३ । तुम प्रभु कहियत दीनदयाल ॥ टेक ॥ आपन जाय मुकतमैं बैठे, हम जु रुलत जगजाल ॥ तुम० ॥१॥ तुमरो नाम जपें हम नीके, मन वच तीनों काल। . तुम तो हमको कछू देत नाहि, हमरो कौन हवाल ॥ तुम० ॥२॥ बुरे भले हम भगत तिहारे, जानत हो हम चाल । और कछु नहिं यह चाहत हैं, राग दोपकों टाल ॥ तुम० ॥३॥ हमसौं चूक परी सो कसो, तुम तो कृपाविशाल । धानत एक बार प्रभु जगतै, हमको लेहु निकाल ॥ तुम० ॥ ४ ॥ २४ । राग-ख्याल । - मैं नेमिजीका वंदा, मैं साहवजीका वंदा ।। टेक ॥ नैन चकोर दरसको तरसैं, खामी पूरनचंदा ॥ मैं नमिजी०॥१॥छहाँ दरवमें सार बतायो, आतम आनंदकन्दा । ताको अनुभव नित प्रति कीजे, नासै सब दुख दंदा ॥ मैं नेमिजी ॥२॥ देत धरम उपदेश १ वख्शो साफ करो।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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