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________________ १२ जैनपदसंग्रह | भवमल पाप वहायो जी। आदिनाथ अरहन्त आदिगुरु, चरनकमल चित लायो जी ॥ भस्यो० ॥ ४ ॥ २१ । राग - रामकली । जियको लोभ महा दुखदाई, जाकी शोभा ( ? ) बरनी 'न जाई ॥ टेक ॥ लोभ करै मूरख संसारी, छांड़े पfusa शिव अधिकारी ॥ जियको० ॥ १ ॥ तजि घरवास फिरै वनमाहीं, कनक कामिनी छांड़े नाहीं । लोक रिझावनको व्रत लीना, व्रत न होय ठगई सा कीना ॥ जियको ० ॥ २ ॥ लोभवशात जीव हत डारे, झूठ बोल चोरी चित धारै । नारि गहै परिगृह विसतारै, पांच पाप कर नरक सिधारै ॥ जियको ॥ ३ ॥ जोगी जती गृही वनवासी, वैरागी दरवेशं सन्यासी । अजस खान जसकी नहिं रेखा, द्यानत जिनकै लोभ विशेखो || जियको ० ॥ ४ ॥ २२ । रे मन ! भज भज दीनदयाल || टेक ॥ जाके नाम लेत इक छिनमैं, करें कोट अघजाल ॥ रे मन० ॥१॥ || परमेश्वर स्वामी, देखें होत निहाल । सुमरन करत परम सुख पावत, सेवत भाजै काल ॥ रे मन० ॥ २ ॥ इंद फंनिंद चक्कँघर गावैं, जाको नाम रसाल । परम १ फकीर । २ विशेषता | ३ चक्रवर्ती |
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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